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शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

शरत के उपन्यास चरित्रहीन की नायिकाए




शरत बाबू के वर्मा के घर मे लगी आग मे उनकी कई पुस्तको की पान्डुलिपी जलकर राख हो गयी थी. उनमे से एक थी चरित्रहीन जिसके ५०० पृष्ठों  के जलने का उन्हे बहुत दुख रहा. इसने उन्हे बहुत हताश किया लेकिन वे निराश नहीं हुए.दिन-रात असाधारण परिश्रम कर उसे पुन: लिखने मे समर्थ हुए. लिखने के बाद शरत् बाबू ने अपनी इसके सम्बन्ध में अपने काव्य-मर्मज्ञ मित्र प्रमथ बाबू को लिखा  - ‘‘केवल नाम और प्रारम्भ को देखकर ही चरित्रहीन मत समझ बैठना. मैं नीतिशास्त्र का सच्चा विद्यार्थी हूं. नीतिशास्त्र समझता हूं. कुछ भी होराय देनालेकिन राय देते समय मेरे गम्भीर उद्देश्य को याद रखना. मैं जो उलटा-सीधा कलम की नोक पर आयानहीं लिखता. आरम्भ में ही जो उद्देश्य लेकर चलता हूं वह घटना चक्र में बदला नहीं जाता.’’ प्रमथ की हिम्मत उस पुस्तक के प्रकाशन की जिम्मेदारी लेने की नहीं हुई. 

अपने दूसरे पत्र में शरत् बाबू प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘‘शायद पाण्डुलिपि पढ़कर वे (प्रमथ) कुछ डर गये हैं. उन्होंने सावित्री को नौकरानी के रूप में ही देखा है। यदि आँख होती और कहानी के चरित्र कहां किस तरह शेष होते हैंकिस कोयले की खान से कितना अमूल्य हीरा निकल सकता हैसमझते तो इतनी आसानी से उसे छोड़ना न चाहते. अन्त में हो सकता है कि एक दिन पश्चात्ताप करें कि हाथ में आने पर भी कैसा रत्न उन्होंने त्याग दिया. किन्तु वे लोग स्वयं ही कह रहे हैं, ‘चरित्रहीन का अन्तिम अंश रवि बाबू से भी बहुत अच्छा हुआ है। (शैली और चरित्र-चित्रण में) पर उन्हें डर है कि अन्तिम अंश को कहीं मैं बिगाड़ न दूँ. उन्होंने इस बात को नहीं सोचा, जो व्यक्ति जान-बूझकर मैस की एक नौकरानी को प्रारम्भ में ही खींचकर लोगों के सामने उपस्थित करने की हिम्मत करता है वह अपनी क्षमताओं को समझकर ही ऐसा करता है। यदि इतना भी मैं न जानूँगा तो झूठ ही तुम लोगों की गुरुआई करता रहा.’’

यह उपन्यास बहुत ही सुगठित है.और मेरी समझ में शरत साहित्य में सबसे सुन्दर है. २० वी शताब्दी के प्रारम्भ के बंगाली समाज से उठाये गए इस कथानक के हर पात्र पर चर्चा विस्तार से की जा सकती है लेकिन यहाँ मैं नारी पात्रो पर ही चर्चा कर रहा हूँ. कहानी में ४ महिला पात्र है उनमे से २ केंद्रीय पात्र है (सावित्री और किरणमयी) और दो सहायक (सरोजनी और सुरबाला). चारो के चारो भिन्न चरित्र लिए हुए है. पहले हम केंद्रीय पात्रो पर चर्चा करें जिन्हें कथानक में चरित्रहीन निरूपित किया गया है.

सावित्री 
सावित्रीजिसने एक ब्राहमण के घर में जन्म लिया और उसी के अनुरूप संस्कार और समझ पायी को भाग्य के हाथो मजबूर होने पर दासी के रूप में काम करना पडा. उसे ऐसे कार्य भी करने पड़ते है जो सिर्फ निम्न कुल या जाति की महिलाए ही करती है लेकिन ये सब करते हुए बिषम परिस्थितियों में भी वो अपने चरित्र को बचाए रखती है. बहुत से लालची पुरुष रूपी भेडियो के बीच रहकर भी वो उसी आदमी (सतीश)  के प्रति आजन्म समर्पित रहती है जिसे वो प्यार करती है लेकिन खुलकर कभी इजहार नहीं कर पाती. सतीश के मन मे सावित्री केलिए आकर्षण है लेकिन जब सतीश मैस मे उसका हाथ पकड़ लेता है तो वह उसकी इस हरकत के लिए उसे झिड़कती है तो इसलिए नहीं कि उसे इसमे अपना अपमान लगा बल्कि इसलिए कि औरो के सामने ऐसा करने पर कुलीन सतीश की बदनामी होती. वो अंत समय तक सतीश की खूब सेवा करती है एकनिष्ठ प्यार भी करती है लेकिन अपने दासत्व की स्थिति को देखते  हुए  कभी उसे पाने का सपना नहीं पालती. सतीश की शादी होती है पाश्चात्य शिक्षा और संस्कारों में पली बढीआधुनिक सोच  रखने वाली  सरोजिनी से जो सतीश के गायन और संगीत के कारण उसकी दीवानी हो जाती है. सतीश से उसकी शादी होने में पारिवारिक माहौल और धार्मिक सोच की माँ की बड़ी भूमिका रहती है. जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है सावित्री को कहानी के प्रारम्भ में ही पाठक के सामने रखकर शरत ने इस पात्र के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा सबके सामने रखी है.

किरणमयी 
किरणमयी के रूप में शरत ने एक अत्यंत रूपवतीचिंतनशील और तार्किक पात्र को कहानी में खडा किया है. पति मृत्यु के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है घर मे तीन ही प्राणी है पति और उसके अलावा एक सास है जिसके लिए अपने बेटे के कल्याण के सिवा और किसी बात की फिक्र नहीं है. दिन-रात वो किरणमयी को जली कटी सुनाती रहती है. पति है जिनकी रूचि सिर्फ इस बात मे रही  कि किरणमयी पढ़े. पत्नि की पति से और भी कुछ अपेक्षा होती है शायद वो पति को अंदाजा ही नहीं है. अपने मुख्य गुणों (सौंदर्यबौद्धिकताऔर तर्क शक्ति)  से किरणमयी तीनो पुरुष पात्रो (सतीशउपेन्द्र और दिवाकर) को आकर्षित और प्रभावित करती है. दोस्त की पत्नि होने के दायित्व  के कारण उपेन्द्र शुरू में उसकी खूब सहायता करता है लेकिन सच तो ये है कि बाद के घटनाक्रमों में सबसे ज्यादा उपेन्द्र ही उसे अपनी संकुचित सोच से गलत समझता है और  तिरस्कार करता है. उपेन्द्र के डर के कारण ही किरणमयी दिवाकर को भगा कर ले जाने का काम करती है. दिवाकर अनाथ हैपरिपक्व नहीं है लेकिन इस तरह भगाकर ले जाने के बाद भी किरणमयी को अभिभावक के रूप मे अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास है. लोगो की नज़रो मे प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नि के रूप में रहते हुए भी और दो जवान शरीरो के एक विस्तार पर सोने पर भी वो दिवाकर को शारीरिक सुख के लिए प्रेरित नहीं करती. दिवाकर को गैरजिम्मेदार होते देख इसके लिए खुद को जिम्मेदार मानते हुए इस भूल का सुधार करती है. अंत मे किरणमयी के किये हुए का औचित्य लेखक समझाता है और उसे क्षमा मिलती है.  

एक और स्त्री पात्र जिसका अभी तक जिक्र नहीं किया है वो हैं सुरबाला. ये उपेन्द्र की पत्नि है. पतिनिष्ठधार्मिकपवित्र और बहुत ही भोली जवान महिला है. धार्मिक मान्यताओं मे उसकी अंधभक्ति है. सुरबाला की मौत  असमय लेकिन साधारण मौत है.        

चार भिन्न प्रकार के स्त्री चरित्रों को लेकर बुने गए इस ताने बाने में शरत के विचार बड़ी तेजी से एक छोर से दूसरे छोर तक जाते है लेकिन जो एक बात विशेष प्रभावित करती है वो ये कि शरत के लेखन ने सभी स्त्री पात्रो की गरिमा को हर हाल में बनाए रखा है. उपन्यास में तत्कालीन हिन्दू समाज का अच्छा चित्रण है और पश्चिमी सोच के प्रभाव और रूढीवादी बंगाली समाज के द्वन्द पर भी अच्छा प्रकाश डाला है.

http://hariprasadsharma.blogspot.com/ पर भी आपका स्वगत है.
हरि शर्मा
०९००१८९६०७९

शनिवार, 17 सितंबर 2011

स्त्री पात्र जिसने शरत को सबसे ज्यादा प्रभावित किया - नीरू दीदी

नीरू दीदी शरत चन्द की एक बहुत ही छोटी कहानी है लेकिन शरत चन्द के नारी पात्रो और उनके मन को समझना हो तो एक दिशासूचक की तरह है. शरत चन्द की कहानियो मे बार बार आने बाले प्रश्न कि क्या ज्यादा
महत्वपूर्ण है नारी के जीवन मै सतीत्व या नारीत्व ?

ढाका विश्वविद्यालय ने शरत को ड़ी. लिट  की उपाधि लेने के लिए बुलाया तब अन्यो के अलावा बांगला के प्रोफ़ेसर मोहित लाल मजूमदार से उनकी मुलाक़ात हुई और वहा बंकिम से उनके बिरोध पर चर्चा हुई वही बहुत भारी मन से शरत ने नीरू दीदी नाम के चरित्र के बारे में कहा. नारियो के संबंध में हमारे समाज में जो धारणा संस्कार की तरह बद्धमूल है, वह कितना बड़ा झूठ है, इसे मैं जानता हूँ. हमारे समाज में महिलाओं के लिए कितना अविचार है, नित्य उनपर कितने अत्याचार किये जाते है, अगर उन सबकी साहित्य में पुनरावृत्ति हो तो मानवीय दृष्टिकोण से मानव के मूल्य को स्वीकार करने  के संबंध में हताश होना पडेगा.

नीरू दीदी ब्राहमण की लड़की थी - बाल विधवा. अपने ३२ बर्ष के जीवन तक उनके चरित्र में किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा था. सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मिष्ठा के रूप में पूरे गाव में उसकी ख्याति फ़ैली हुई थी. गाव में शायद ही कोई  ऐसा घर था  जिसके कभी ना कभी वो काम ना आई हो. लेकिन ३२ बर्ष की अवस्था में उस बाल विधवा का पैर फिसल गया या कहे कि गाव का पोस्ट मास्टर उन्हें कलंकित कर कायरो की तरह भाग गया. यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी. गाव देहात में ऐसी घटना होती ही रहती हैं लेकिन जिस नीरू दीदी ने रोगियों की सेवा, दुखियों को सान्तवना और अभावग्रस्तों  की सहायता में  कोई  क़सर नहीं छोडी उस नीरू दीदी की सारी सेवाओं, स्नेह और आदर सत्कार को निमिष मात्र में  भूल गए. समाज  ने उनका परित्याग कर दिया और उनसे बात करना भी बंद कर दिया.

लज्जा, अपमान और आत्म ग्लानि से कुछ दिन में ही नीरू  दीदी मरणासन्न हो शैयाशायी हो गयी और समाज का कोई व्यक्ति उन्हें एक लोटा पानी तक देने नहीं आया. शरत को भी घर परिवार बालो ने हुक्म दे रखा था कि उनसे नहीं मिले लेकिन बालक शरत सबकी निगाह बचाकर उनकी यहाँ चला जाता था. वो उनको फल ले जाकर खिला आता और उनके हाथ पैर सहला देता  लेकिन उस अवस्था में भी उन्होंने समाज के इस पैशाचिक व्यबहार की शिकायत नहीं की. दंड  यही समाप्त नहीं हुआ और जब उनका निधन हुआ तब उनकी लाश छूने भी कोई नहीं आया. डोम के द्वारा उनकी लाश नदी  किनारे जंगल में फिकवा दी गयी जहां सियार कुत्तो ने मिलकर उसे नोच नोच कर खाया.

ये सब कहानी कहते कहते शरत का गला भर आया और धीरे से कहा   -
" मनुष्य ह्रदय में जो देवता है, उसकी हम इस तरह वेइज्जती  करते हैं."  
शरत ने अपने पूरे साहित्य में ये लड़ाई  लड़ी है  और किसी भी पतित के चरित्र चित्रण के समय इसीलिये उनके अन्दर बसे देवता की झलक पाने  और उसे उजागर करने का कोई  अवसर उन्होंने नहीं जाने दिया. शरत की ये कहानी या अनुभव पतित नारियो के प्रति भी उनकी सहृदयता के मूल में है.




         

रविवार, 27 जून 2010

गृहदाह - शरत का चर्चित उपन्यास और इसकी नायिकाये




शरत चन्द के इस चर्चित उपन्यास मे २०वे सदी के शुरूआत के बंगाल  के सामाजिक परिवेश और  सांस्कृतिक परिदृश्य का परिचय मिलता है. उपन्यास के माध्यम से शरत परम्परागत हिन्दू समाज और ब्रह्म समाज के बीच संघर्ष से परिचय कराते  है. , ग्रामीण रूढीवादी  समाज और सभ्य कहे जाने वाले शहरी जीवन के विश्वास और  मूल्यो के बीच के फ़र्क पर भी उन्लेहोने प्रकाश डाला है. इस उपन्यास मे शरत मानवीय प्रेम, विश्वास और विवाह संस्था की तथाकथित मजबूती पर प्रश्न खडे करते है.

एक कुशल समाज सुधारक के रूप मे शरत इस उपन्यास के माध्यम से ब्रह्म समाज के उदय के वाद बंगाली   समाज मे हो रही सामाजिक-धार्मिक समस्याओ की पहचान करते है. मानवीय सम्बन्धो के यथास्थिति चित्रण के साथ साथ इस उपन्यास मे नाटकीय घटनाक्रम है और बाल सखा महिम और सुरेश के आचरण के आलोक मे इस नाटकीयता की यात्रा आगे बढती है. एक तरफ़ गरीब और मेधाबी महिम है जिसे अपना आत्म सम्मान दुनिया की किसी भी उपलब्धि से अधिक प्यारा है तो दूसरी ओर उसका वालसखा सुरेश है जो कि धनवान और उदार है.

महिम और सुरेश की इस घनिष्ठ मित्रता के बीच अचला आती है जो कि ब्रह्म समाज को मानने बाले परिवार से है. लालन पालन और पढाई लिखाई से आधुनिक है. महिम की बौद्धिक आभा अचला को उसकी ओर खीचती है और उसे महिन की वित्तीय और सामाजिक हालत की कोई परवाह नहीं है. महिम से शादी के बाद अचला शहर के आराम त्यागकर उसके साथ पैतृक गाँव जाती है जहाँ अभाव का साम्राज्य है. गरीबी और रूढियो से परेशान होने पर अचला के लिये अपने प्रियतम पति के साथ रहना बहुत कष्टकारी लगता है. पारिवारिक कलह और मृणाल के साथ महिम के रिश्ते के प्रति शन्का और फिर मनमुटाव के बीच सुरेश का उनके बीच आना, इस सबकी परिणिति  "गृहदाह" के रूप मे होती है.

महिम आग मे जल जाता है और गम्भीर बीमार हो जाता है, सुरेश अपने परोपकारी स्वभाव और महिम  से दोस्ती के कारंण महिम की देखभाल करता है और अचला उसकी सेवा करती है. लेकिन इसी बीच अचला सुरेश की तरफ़ आकर्षित होती है और उसे ये महसूस होना शुरू होता है कि बुद्धिमान होने से कुछ नही होता जब तक कि आदमी सामाजिक और आर्थिक र्रूप से मजबूत नही हो. इस बीच सुरेश के धूर्त दिमाग मे कुछ और ही था और वह योजना बनाकर और धोखा देकर अचला को भगा ले जाता है. अन्त मे अचला अपने पति के पास लौट आती है और हिन्दू मान्यताओ के अनुरूप पति के प्रति समर्पित हो जाती है. उपन्यास का शीर्षक सिर्फ़ उनके जले हुए घर की कहानी नही कहता बल्कि अचला और महिम के बीच जलते हुए रिश्ते की ओर इशारा करता है. .

गृहदाह मे शरत ने २ स्त्री पात्रो का चित्रण किया है. अचला और मृणाल 
अचला
अचला के चरित्र को ठीक से समझने का दावा मै नही कर रहा. लेकिन शरत ने उसे कुलटा नही कहा अभागी कहा है. अभागी इसलिये कि जैसे देवदास अभागा था जो समय पर ये नही समझ पाया कि पारो के बिना उसके लियी जीवन क्या है और बह पारो को कितना प्यार करता है ऐसे ही महिम के सदगुणो से प्रभावित होने पर भी बह ठीक से यह नही जान पायी कि बह महिम से कितना प्यार करती है. अपनी सोच और अपने जीवन के प्रति उसके विचार निश्चयात्मक नही है. वह एक विचारबान महिला है लेकिन लेकिन अपने विचार पर टिकी नही रह पाती.  महिम से विवाह वो अपने पिता की अनिच्छा के वाबजूद करती है लेकिन बाद मे अपने निर्णय से खुश नही रहती. प्यार करते समय गरीबी और अभाव की बातो को नज़रन्दाज़ करने वाली अचला उनका सामना करने पर महिम के वास्तविक गुणो को भी भूल जाती है. शरत इसके लिये दोष अचला को नही बल्कि उस समय के बन्गाली समाज के शहरी और ग्राम्य जीवन के मूल्यो के टकरव को और सामजिक-धार्मिक मत भिन्नता की खाई को इसके लिये जिम्मेदार मानते है.
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मृणाल 
अचला के चरित्र के विपरीत मृणाल एक कम पढी लिखी ग्राम्य महिला है स्वभाव से चुलबुली है. जबरदस्त हास्य बोध है, वेमेल विवाह की अपनी नियति पर कुढती भी है लेकिन अपने धर्म और जिम्मेदारियो के प्रति पूर्णत: सजग है. महिम को कभी पसन्द करती थी और अपने वेमेल विवाह के लिये भी उसे ही जिम्मेदार मानती है. वो एक आस्थावान हिन्दू महिला है और विधवा होने के बाद अपनी नियति से समझौता कर लेती है.